चित्रलेखा : पाप और पुण्य की खुर्दबीनी


यूं तो वेदव्यास सदियों पहले परपीड़ा को सबसे बड़ा पाप बता चुके हैं, पर पाप और पुण्य की नए सिरे से छानबीन के लिए भगवतीचरण वर्मा ने पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में एक उपन्यास चित्रलेखालिखा। पिछले दिनों सुरेंद्र शर्मा निर्देशित इस उपन्यास की प्रस्तुति देखते हुए उसका कृत्रिम ढांचा थोड़ी देर में कोफ्त पैदा करने लगता है। यह आख्यान में सिद्धांत का एक बनावटी प्रक्षेपण है, जिसमें भगवतीचरण वर्मा योग और भोग के परस्पर विरोधी ध्रुवों की टहल करते हुए अंततः इस ठेठ नियतिवादी और दुनियादार निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का दास होता है, कि संसार में पाप कुछ भी नहीं हैकि यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है;कि हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं,  हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।भारतीय मानस के प्रबल शुद्धतावाद की मुक्ति हीनयान-महायानी किस्म की अतियों के बगैर संभव नहीं। यह उपन्यास उसी सनातन भारतीय पद्धति का एक छिद्रान्वेषी और बेडौल नैरेटिव है जहां जीवन के उलझेपन का ग्राफिकल समाधान खोजने की कोशिश में उसे कुछ और उलझा दिया जाता है। अपनी राह के राही योगी कुमारगिरि के लिए वासना पाप है, जबकि नर्तकी चित्रलेखा के लिए सुख तृप्ति का दूसरा नाम है और शांति कर्महीनता का। चित्रलेखा की निकटता में कुमारगिरि की शारीरिक आकांक्षाएं इस कदर प्रबल हो उठती हैं कि वह झूठ बोलकर उसे प्राप्त करता है। उपन्यास के सभी पात्र कुछ ऐसे हैं कि उनके अंदर एक भोगी और एक योगी एक साथ रहते हैं, जिन्हें वे तरह-तरह से पहचाना करते हैं। उनके पाप और पुण्य का कोई सामाजिक परिप्रेक्ष्य नहीं है; उनका मंतव्य आत्मा की शुद्धि से है। उपन्यास पर बनी इसी नाम की फिल्म में साहिर लुधियानवी ने इन्हें रीतों पर धर्म की मोहरें कहकर निश्चित ही एक अवांतर व्याख्या की है।  
किसी उपन्यास पर आधारित यह निर्देशक सुरेंद्र शर्मा की सातवीं प्रस्तुति है। उपन्यास को नाटक में तब्दील करते हुए उनकी रंग-दृष्टि यह जानती रही है कि उपन्यास का विस्तार पाठक के भीतर उसके चरित्रों की प्रबल छवियां निर्मित करता है, जिन्हें मंच पर जीवंत बनाना ही उनका मुख्य काम है। इस क्रम में रंगभूमि का सूरदास और बूंद और समुद्र की ताई आदि किरदार उनकी प्रस्तुतियों में यादगार रहे हैं। लेकिन वह जीवंतता इस प्रस्तुति के गढ़े गए मालूम देते पात्रों में शायद संभव नहीं थी। उसका यह गढ़ाव तुम्हारा क्षेत्र है साधना, मेरा वासना जैसे चमकदार वाक्यों और वैराग्य के स्वामी औरअनुराग की दासी नुमा वैसे ही विशेषणों से बना है। चित्रलेखा कहती है- स्त्री उसी से प्रेम करती है जो उसपर विजय पा लेता है, पर यहां मैं स्वामिनी हूं तुम दास। वह खुद पर आसक्त श्वेतांक से जब कहती है कि तुम मेरे छोटे भाई के समान हो, तो दर्शक हंस पड़ते हैं। एकांगी भावबोध में सिद्धांत की खुर्दबीनी करने वाले इस उपन्यास में हंसने के ऐसे विसंगतिपूर्ण मौके तीन-चार जगह और भी आते हैं। फिर भी यह सुरेंद्र शर्मा के कसे हुए निर्देशन की उपलब्धि है कि कई उपकथाओं में विन्यस्त सवा दो घंटे लंबी प्रस्तुति में दर्शक प्रायः अंत तक बंधे बैठे रहते हैं। अभिनय का स्तर निश्चित ही प्रस्तुति में काफी ठीक था। अलबत्ता मगधकालीन समय में मंच पर मुगलिया नक्काशीदार गिलासें और जस्ते की वैसी ही नलकीदार सुराही कुछ अटपटी लगती हैं।

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