क्लासरूम में कश्मीर


राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की डिप्लोमा प्रस्तुतियों में छात्रगण मंच पर काफी कुछ ठूंस देने की आदत के शिकार हैं। इधर के अरसे में इन प्रस्तुतियों में कोई अवधारणात्मक चमक विरले ही दिखाई देती है,अलबत्ता किसी ऊंचे खयाल की एक भंगिमा जरूर होती है। भारत रंग महोत्सव में हुई प्रस्तुति द कंट्री विदाउट ए पोस्ट आफिस’ भी इसी श्रेणी का एक भावुक उच्छवास है। आगा शाहिद अली की कविता पर आधारित कश्मीर समस्या का एक रंगमंचीय रेटॉरिक। मालूम पड़ता है निर्देशक मुजम्मिल हयात भवानी ने रंगमंचीय डिजाइन का हर देखा-सुना अवयव इसमें पैबस्त कर दिया है। प्रवेश करते ही पूरे प्रेक्षागृह में अंतर्देशीय लिफाफे यहां-वहां बिखरे पड़े हैं। दाएं सिरे पर पोस्ट आफिस में बैठा पोस्टमास्टर दिखाई देता है। फिर बीच के गलियारे से पात्रगण यहां प्रवेश करते हैं। वे प्रायः बुरके और पठानी सूट में हैं और गाते हैं- मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको/ नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको.’ फिर वे राष्ट्रगान गाते हैं। दिलचस्प ढंग से सारे दर्शक भी राष्ट्रगान सुनकर खड़े हो गए हैं। फिर क्लासरूम का दृश्यजहां बिंदी-साड़ी वाली अध्यापिका गाय के बारे में पढ़ाती है। स्थिति बदलती है और एक बम धमाके के बाद छत से लटके बहुत से चौखटेंदरवाजे धड़ाम-धड़ाम की आवाज के साथ मंच पर लटकने लगे हैं। फिर मुस्लिम टोपियां लगाए पात्रक्रिकेट का खेल और एक निर्दोष किशोरमोर्चा लगाए बैठा आर्मीमैन,बम और स्टेनगन और देर तक पीछे की स्क्रीन पर चलते वीडियो कोलाज। वीडियो में आजादी की गुहार लगाते लोगकेकड़ेमगरमच्छ और जाने क्या क्या उभरता है। फिर जंजीरों में जकड़ा एक शख्स बीच के गलियारे से मंच पर जाता है। उसकी जंजीर में एक चाभीएक बैंगनएक पिपरी बंधे हुए हैं। वह मंच पर आकर बोलता है- यह तुम्हारा दर्द हैइसे महसूस करना चाहिए।
ऐसा लगता है कि डिप्लोमा प्रस्तुतियां नितांत डिजाइन और हुनर के प्रयोजन से ही तैयार की जाती हैं। एक क्राफ्ट्समैनशिप या शिल्पकारिताजबकि उनसे रंगमंच की मुकम्मल ट्रेनिंग का निचोड़ होने की अपेक्षा की जाती है। यह प्रस्तुति बिखरे ढंग से और बाहरी साधनों से एक चौंध पैदा करने की कोशिश जरूर करती है, पर रुचिदृष्टिसादगीगहराई और अभिनय जैसी चीजों से आकार लेने वाला कोई स्पष्ट रंग-नजरिया उसमें नहीं दिखता। उस दृष्टि से पिछले साल देखी पापा लादेन’ एक कहीं  बेहतर प्रस्तुति थी,जिसमें कई हास्यपरक छवियां चरित्रांकन और अभिनय की एक निश्चित सूझ में सामने आती हैं। जबकि यह प्रस्तुति कश्मीर समस्या की एक पुरानी थीम को कोलाज की शैली में नए ढंग से दोहराने का काम करती है। हालांकि निर्देशक में चीजों के मिजाज की एक समझ दिखती है। उनके पात्र और गीत संगीत कहीं भी ज्यादा लाउड नहीं हैं और रह-रह कर एक माहौल बनाते हैं। जाहिर है कि निर्देशक मुजम्मिल हयात भवानी की प्रतिभा फुटकर रूप में जिन चीजों को जानती हैउन्हें वे एक तरकीब के रूप में संयोजित करने की कोशिश करते हैं।
कमानी प्रेक्षागृह में हुई चीन की प्रस्तुति द वारसा मेलोडी’ सोवियत नाटककार लियोनिद जोरिन का 1967 में लिखा नाटक है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात के परिवेश में एक प्रेमकथा है। लेखक ने इसमें ऐतिहासिक मुद्दों की वजह से लोगों के जीवन में आने वाली पीड़ाओं को कहा है। बाद में दुनियाभर की बहुतेरी थिएटर कंपनियों ने इस नाटक के प्रस्तुतियां कीं। आलोचकों ने नैतिकता,समाज और नागरिकों की असल समस्याओं को उठाने के लिए इस नाटक की तारीफ की। यह दो पात्रीय नाटक एक प्रेमी जोड़े के बीस सालों  के भावनात्मक अनुभवों के माध्यम से बहुत कुछ कहता है। प्रस्तुति में युवा से अधेड़ उम्र तक जा पहुंचे दो प्रेमियों की बतकही ही विभिन्न दृश्यों में थोड़े बहुत फेरबदल के साथ मौजूद है। उनकी खुशी और नाराजगीमान-मनौव्वल और बहस। उनकी चर्चा के बहुतेरे संदर्भ हैंहांलाकि अंग्रेजी सबटाइटल्स के जरिए यह चर्चा बहुत गर्मजोशी पैदा नहीं कर पाती।

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