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दूर से तुगलक पास से तुगलक

फिरोजशाह कोटला में नाटक के मंच के कई खंड हैं। बाएं छोर पर आम जनता से जुड़ी स्थितियों के लिए छोटे-छोटे जीनों में बना प्लेटफॉर्म, फिर बादशाह का दरबार और कक्ष, फिर एक बस्ती, एक किला और उसकी बुर्जी; उसी से सटी एक ऊबड़खाबड़ जगह। यह इतना विस्तृत मंजर है कि किसी एक दृश्य के लिए दर्शक को बहुत ज्यादा गर्दन घुमानी पड़ती है, या बुर्जी पर एक वास्तविक पेड़ के करीब अपने सिपहसालार से बात कर रहा बादशाह किसी सुदूर छवि की तरह दिखाई देता है। यह प्रोसीनियम से एक अलग तरह का अनुभव है। यहां कोई छत नहीं है जहां से पात्र को फोकस में लेने वाला रोशनी का कोई स्पष्ट वृत्त बन सके। यहां रोशनियां थोड़ी दूर से आती हैं। दृश्य दर दृश्य किसी एक मंच को उजागर करतीं। आरके धींगरा ने कई मौकों पर अपनी प्रकाश योजना से अच्छे चाक्षुष असर पैदा किए हैं।  इब्राहीम अलकाजी के शब्दों में तुगलक एक ऐसा नाटक है जो 'विशद निरूपण' की मांग करता है, जिसमें उदाहरण के लिए उन्होंने बादशाह के अध्ययन कक्ष की किताबों से ठसाठस भरी ताख का भी जिक्र किया है। पर निर्देशक भानु भारती की प्रस्तुति के इस विस्तृत मंच पर विशद निरूपण का अर्थ बदल गया है

इतिहास के खंडहर में तुगलक

फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में पिछले साल किए 'अंधा युग' के मंचन के बाद निर्देशक भानु भारती एक बार फिर वहीं एक बड़ी प्रस्तुति 'तुगलक' लेकर आ रहे हैं। गिरीश कारनाड का यह नाटक सत्तर के दशक में इब्राहीम अलकाजी ने पुराना किला में खेला था। लेकिन फिरोजशाह कोटला का इतिहास तो खुद तुगलक वंश से जुड़ा है। इसे नाटक के नायक मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई और उत्तराधिकारी बने फिरोजशाह तुगलक ने चौदहवीं शताब्दी के मध्य में बनवाया था। लेकिन इस ऐतिहासिक संयोग याकि संगति के अलावा निर्देशक भानु भारती के मुताबिक 'यह नाटक आधुनिक युग के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। सत्तासीन लोगों के इर्द-गिर्द रहने वाले विवेकशून्य लोग शासकों को भी आम जनता के कल्याणकारी काम करने से रोकते हैं। वे दूरदृष्टि वाले शासक के नेक विचारों को भी अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं।'  गिरीश कारनाड ने अपने नाटक में भारतीय इतिहास के सबसे विवादास्पद चरित्रों में से एक रहे तुगलक को एक नए तरह से देखा था। एक स्वप्नदर्शी शासक, जिसमें बड़े फैसले लेने का साहस था। लेकिन जो अपनी सुगठित राज्य की आकांक्षाओं का वस्

फिर फिर मंटो

दिल्ली की उर्दू अकादमी ने सआदत हसन मंटो की जन्म शताब्दी के मौके पर अपना इस साल का नाट्य समारोह उन्हीं को समर्पित किया। पिछले साल अकादमी ने यह फेस्टिवल  फैज अहमद फैज की जन्म शताब्दी के मौके पर इसी तरह फैज को समर्पित किया था। नाटककार न फैज थे, न मंटो। हिंदी-उर्दू के रंगकर्मी ऐसी सूरत में कोलाजनुमा एक फार्मूले का इस्तेमाल करते हैं। थोड़ी-बहुत लेखक की जिंदगी और थोड़ा-बहुत उसका साहित्य लेकर प्रस्तुति तैयार की जाती हैं। हिंदी-उर्दू की बौद्धिकता की इस इतिवृत्तात्मकता से आगे कोई गति नहीं है। उसपर उर्दू वालों की विशेषता यह है कि वे अपने लेखकों पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही मुग्ध रहते हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में मंटो को लेकर बनी इस तरह की  इतनी प्रस्तुतियां देख ली हैं कि सारे दोहराव की तस्वीर पहले से ही आंखों के आगे खिंची रहती है। संयोग ऐसा रहा कि इस फेस्टिवल में देखी दो प्रस्तुतियों में यह दोहराव डबल होकर सामने आया। सलीमा रजा निर्देशित 'एक कुत्ते की कहानी' और रामजी बाली निर्देशित 'मंटो की कलम से' की मार्फत मंटो की कहानियां 'टिटवाल का कुत्ता' और 'काली सलवार' दो-दो

असली लड़ाई अतर्कवाद से है

किसी भी विषय को लेकर सही तरह से सोच पाना हिंदुस्तानियों को कभी नहीं आया. विचार के किसी एक सिरे को पकड़ कर खींचते चले जाना हमने खूब सीखा. इस तरह हमारी सभ्यता में तरह-तरह के शास्त्र तैयार हुए- तर्कशास्त्र, वैशेषिक, सांख्य, न्यायसूत्र...और जाने क्या-क्या. लेकिन इन शास्त्रों से समाज सुखी क्यों नहीं हो रहा, इसके समेकित नतीजे तक पहुंचने की चेष्टा कभी नहीं की गई. इसकी वजह है कि समाज कभी फिक्र में रहा ही नहीं. यह हमारी  व्यक्तिकेंद्रित सभ्यता में ही संभव था कि कई करोड़ व्यक्तियों की एक जैसी समस्याओं को वह व्यक्ति दर व्यक्ति के शुद्धतावादी अनुरोध में उलझा देती. गांधी ने यह काम सबसे बड़े पैमाने पर किया. उन्होंने एक व्यापक जनांदोलन में निहित सामाजिक आकांक्षाओं को आत्मशुद्धि के अहिंसावाद में नष्ट कर दिया. करोड़ों लोगों की ख्वाहिशों से जुड़े ऐसे सवाल जिनके जवाब हमेशा कठिन और अक्सर कटु होते हैं, का उन्होंने एक कृत्रिम समाधान पेश किया- भावुक आत्मोत्सर्ग का. ठोस ढंग के स्वार्थों पर टिकी व्यवस्था को उन्होंने अनशन कर-कर के पिघलाने की बचकानी चेष्टा की. हकीकत में उनकी यह चेष्टा सैकड़ों साल की व्यक्तिनि

गफलत के माहौल में

सोहैला कपूर हाल तक अंग्रेजी थिएटर करती रही हैं। इधर कुछ अरसे से वे हिंदी में दाखिल हुई हैं। कॉमेडी उनका प्रिय क्षेत्र है। बीते सप्ताहांत रमेश मेहता की स्मृति में श्रीराम सेंटर में हुए समारोह में उन्होंने उनका नाटक 'उलझन' पेश किया। ड्राइंगरूम की सेंटिंग में एक युवा नायक और उसका दोस्तनुमा नौकर। कई तरह की उधारियों के जरिए सुख से जीने वाले नायक से उगाही के लिए दर्जी और दुकानदार आते हैं। दक्षिण भारतीय मकान मालकिन, जिसका किराया कई महीने से नहीं चुकाया गया है, भी रह-रह कर कुछ खरीखोटी सुनाकर जाती है। यानी कई तरह के किरदार रह-रह कर दृश्य में दिखाई देते रहते हैं। नायक को शाम तक घर खाली न करने पर सामान फेंक देने की धमकी मिल चुकी है। लेकिन इन तमाम परेशानियों से जूझ रहा वह सहसा गदगद हो उठता है जब एक खूबसूरत लड़की दृश्य में नमूदार होती है। प्रस्तुति  सार्वकालिक सिटकॉम का एक अच्छा उदाहरण है। ऐसी प्रस्तुतियों में टाइमिंग की चुस्ती काफी महत्त्वपूर्ण होती है, जो कि इस प्रस्तुति में ठीक से है। सोहैला कपूर अपने पात्रों को एक अच्छी कॉमिक रंगत देती हैं। कभी यह चीज किरदार की बदहवासी से बनती है, कभ

थ्री आर्ट्स क्लब के वो दिन

लेखक, निर्देशक और अभिनेता रमेश मेहता 1950 और साठ के दशक में दिल्ली में रंगमंच की दुनिया का एक बड़ा नाम थे। वे 1948 में शिमला से दिल्ली स्थानांतरित हुए थिएटर ग्रुप थ्री आर्ट्स क्लब से जुड़े थे। थ्री आर्ट्स क्लब को तीन लोगों- ओम शर्मा, देवीचंद कायस्थ और आरएम कौल- ने 1943 में बनाया था, लेकिन दिल्ली आने के बाद आरएम कौल, रमेश मेहता और तीन दशक तक बाराखंबा रोड स्थित मॉडर्न स्कूल के प्रिंसिपल रहे एमएन कपूर इसके स्तंभ बने। तब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना नहीं हुई थी और 'थ्री आर्ट्स क्लब' रमेश मेहता के निर्देशन में सप्रू हाउस में निरंतर नए-नए नाटकों का प्रदर्शन करता था। उनके नाटक एक शहरी व्याकरण में सामाजिक प्रवृत्तियों पर व्यंग्य करने वाले और लोकरुचि के अनुरूप होते थे। इस तरह उन्होंने दिल्ली में थिएटर को एक चेहरा दिया, लेकिन बाद के अरसे में उन्हें भुला दिया गया। सन 2008 में, अपने पिता आरएम कौल की मृत्यु के 25 वर्षों बाद, उनकी पुत्री अनुराधा दर ने थ्री आर्ट्स क्लब को पुनर्जीवित करते हुए दिल्ली में एक समारोह का आयोजन किया, जिसमें रमेश मेहता भी शामिल थे (उसी साल उन्हें संगीत नाटक