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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सम्मोहन के विस्तार में

रवींद्र भारती का नाटक 'अगिन तिरिया' दो हजार साल पुराने भारतीय भाववाद की एक अनुपम रचना है। भाववाद को किसी साक्ष्य, तथ्य या परीक्षण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसी जीवन दृष्टि वृहत्तर यथार्थ की सच्चाई को अलक्षित करते हुए व्यक्तिगत एकांगी उदभावना को अभिव्यक्त करती है। यहीं से अपनी लक्षणाओं में प्रसन्न रहने वाले रेटॉरिक का जन्म होता है। इसी फितरत में भारतीयों ने इतिहास और लोकजीवन की घटनाओं को अपने मनोनुकूल कहानियों में तब्दील कर लिया। अल बिरूनी ने लिखा भी है कि भारतीयों से इतिहास की किसी घटना के बारे में पूछो तो वे कोई कहानी सुनाने लगते हैं। रवींद्र भारती का पूरा नाटक ऐसी ही कहानियों का एक मनोहारी रेटॉरिक है। ये जीवन के किसी अलौकिक आभास से नत्थी बहुत सी कहानियां हैं। एक ऐसी काल्पनिक दुनिया जिसके पात्र किंवदंतियों और लोककथाओं से उठाए गए मालूम देते हैं। इस तरह रवीद्र भारती अपनी ही एक दंतकथा गढ़ते हैं। लेकिन यह काफी निपुणता से रची गई दंतकथा है। जो यहां-वहां बहुत से उपप्रसंगों में देर तक उलझी आगे बढ़ती है। कई कथालीकों, बहुत सारे पात्रों और उपकथाओं से विन्यस्त यह कोई कथानक नहीं बल्कि एक राग

पंच नद दा पानी

पंजाबी अकादमी के कुछ अरसा पहले हुए थिएटर फेस्टिवल में नाटककार और निर्देशक आत्मजीत निर्देशित प्रस्तुति 'पंच नद दा पानी' का मंचन किया गया। प्रस्तुति में मंच पर चीजें पारंपरिक ढंग से काफी चाक चौबंद नजर आती हैं। हर दृश्य का बिस्मिल्ला दो सूत्रधार भांडों के जरिए होता है और उपसंहार एक कोरस से। इस तरह नाटक अपनी वास्तविक लंबाई से करीब डेढ़ गुना ज्यादा समय में फैला हुआ है। मंच पर तेरहवीं सदी के पंजाब के इतिहास के कुछ दृश्य हैं। यह वो वक्त है जब असल सत्ता तुर्कों के पास है, और इन तुर्कों की अक्सर मंगोल हमलावरों से लड़ाइयां हुआ करती हैं। ऐसे में राजपूत राजा राणा रांवल भट्टी की हैसियत यही रह गई है कि वे तुर्कों के पक्ष में अपने सैनिकों को लड़ाई के लिए भेजते रहें। मनमोहन बावा की दो कहानियों पर आधारित इस नाटक में कुछ सांस्कृतिक और जातीय सवाल बीच-बीच में दिखते हैं। तुर्क शासक गाजी मलिक अपने भाई की शादी राणा रांवल की बेटी से करना चाहता है, जो कि राजपुताना अहं के लिए बड़े धिक्कार की बात है। लेकिन यह अहं यथार्थ के आगे व्यर्थ है। राणा सांवल की बेटी नीला एक बुद्धिमान लड़की है जिसमें आत्मसम्मान की

एक शाम दास्तानगोई की

महमूद फारुकी और दानिश हुसैन की दास्तानगोई एक बार जरूर देखनी चाहिए। करीब आठ-नौ दशक पहले पूरी तरह लुप्त हो चुकी इस लखनवी परंपरा को इधर के सालों में उन्होंने फिर से जिंदा करने की कोशिश की है। दास्तानगोई का उदगम अरब से माना जाता है। इसके असल नायक अमीर हमजा हैं, जो पैगंबर मोहम्मद के हमउम्र चाचा थे। उन्होंने इस्लाम के लक्ष्यों के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं और दुनिया-जहान की यात्राएं कीं। अमीर हमजा की बहादुरी के कारनामों की ये कहानियां कई सदियों के दौरान मध्य एशिया और उत्तर पूर्व के देशों में स्थानीय इतिहास-प्रसंगों और मान्यताओं के मुतल्लिक आकार लेकर एक वृहद दंतकथा में तब्दील होती रही। इन दास्तानों के संग्रह को हमजानामा कहा जाता है। बादशाह अकबर ने इन्हें चित्रबद्ध भी करवाया। उन्नीसवीं सदी के मध्य में इसी हमजानामा से 'तिलिस्म-ए-होशरुबा' ने जन्म लिया। इसके पीछे मुख्य रूप से उस्ताद दास्तानगो मीर अहमद अली का हाथ था। उनके नेतृत्व में लखनऊ के दास्तान कहने वालों ने अमीर हमजा की बहादुरी के साथ नत्थी जिन्नों, परियों वगैरह की अब तक चली आई कहानियों से अलग हिंदुस्तानी रंगत की एक नई दुनिया आबाद की।