फिर फिर मंटो


दिल्ली की उर्दू अकादमी ने सआदत हसन मंटो की जन्म शताब्दी के मौके पर अपना इस साल का नाट्य समारोह उन्हीं को समर्पित किया। पिछले साल अकादमी ने यह फेस्टिवल  फैज अहमद फैज की जन्म शताब्दी के मौके पर इसी तरह फैज को समर्पित किया था। नाटककार न फैज थे, न मंटो। हिंदी-उर्दू के रंगकर्मी ऐसी सूरत में कोलाजनुमा एक फार्मूले का इस्तेमाल करते हैं। थोड़ी-बहुत लेखक की जिंदगी और थोड़ा-बहुत उसका साहित्य लेकर प्रस्तुति तैयार की जाती हैं। हिंदी-उर्दू की बौद्धिकता की इस इतिवृत्तात्मकता से आगे कोई गति नहीं है। उसपर उर्दू वालों की विशेषता यह है कि वे अपने लेखकों पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही मुग्ध रहते हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में मंटो को लेकर बनी इस तरह की 
इतनी प्रस्तुतियां देख ली हैं कि सारे दोहराव की तस्वीर पहले से ही आंखों के आगे खिंची रहती है। संयोग ऐसा रहा कि इस फेस्टिवल में देखी दो प्रस्तुतियों में यह दोहराव डबल होकर सामने आया। सलीमा रजा निर्देशित 'एक कुत्ते की कहानी' और रामजी बाली निर्देशित 'मंटो की कलम से' की मार्फत मंटो की कहानियां 'टिटवाल का कुत्ता' और 'काली सलवार' दो-दो बार देखने को मिलीं। 
'एक कुत्ते की कहानी' का आलेख नाटककार दानिश इकबाल ने तैयार किया था। दानिश की पिछले साल फैज वाली प्रस्तुति भी देखी थी। वे इस तरह के आलेख के लिए एक अच्छे संपादक हैं। उन्होंने दोनों कहानियों के उतने ही हिस्से को लिया है जहां उनकी विडंबना ज्यादा चुस्त होकर दिखती है। कहानी 'टिटवाल का कुत्ता' सरहद पर हिंदुस्तान-पाकिस्तान के मोर्चों के दरम्यान कहीं से चले आए एक कुत्ते के जरिए एक खांचाबद्ध मानसिकता की विडंबना को दिखाती है. निरीह कुत्ते को दोनों तरफ के देशभक्त सैनिक अपने-अपने संदेहों में आखिर मार डालते हैं। सलीमा रजा के यहां मंच पर एक बंदा नकली कुत्ते को पकड़े है और उसकी आवाज निकाल रहा है। जबकि रामजी बाली ने एक कलाकार से कुत्ते की एक्टिंग कराई है। ऐसी बजाहिर तरकीब से अलग कोई अन्य कल्पनाशीलता ऐसे मामले में शायद संभव नहीं थी। उसपर रामजी बाली इस तरकीब में थोड़ा और 'खुला खेल' करते हैं। उनका 'कुत्ता' बीच-बीच में डायलाग भी बोलता है। बहरहाल पहले बात सलीमा रजा और दानिश इकबाल वाली प्रस्तुति की। दानिश कहानियों की फोकस की गई विडंबना को मंटो की अपनी एक व्याख्या के साथ पेश करते हैं। इसके लिए वे साहित्यिक किस्म की नाटकीयता का एक ढांचा बनाते हैं। इसमें मंटो एक मनोचिकित्सक के पास पहुंचे हुए हैं, क्योंकि उनपर चले मुकदमे के फैसले में उनसे पागलपन का इलाज कराने के लिए कहा गया है। मनोचिकित्सक के आगे वे अपने और समाज के पागलपन का विश्लेषण करते नजर आते हैं। वे कहते हैं- 'मैं राइटर हूं। मुझे जिंदगी को उसी शक्ल में पेश करना चाहिए जैसी कि वह है, न कि जैसी वह थी या जैसा उसे होना चाहिए।' लेकिन उनका यह यथार्थवाद ऐसा है कि 'कहानियां खुद बखुद लिखवा लेती हैं अपने आपको।'
लगभग खाली स्टेज के दाएं छोर पर मनोचिकित्सक के साथ बैठे मंटो बीच-बीच में 'मदर टिंचर' का सेवन करते कुर्ता-पाजामा पहने बैठे हैं। बाकी स्टेज पर कुछ-कुछ अंतराल पर कहानियां दिखाई देती हैं। लेकिन दृश्यात्मकता के लिहाज से 'टिटवाल का कुत्ता' को छोड़कर बाकी कहानियां पैबंदनुमा हैं, जिनका कोई भी असर उनके खत्म होते ही खत्म हो जाता है। दरअसल प्रस्तुति दृश्य से ज्यादा व्याख्याओं में उलझी है। इसी क्रम में तीसरी कहानी 'ठंडा गोश्त' के नायक ईशर सिंह को ऐसा किरदार बताया गया है 'जो हैवान होकर भी इंसानियत न खो सका.' ऐसी ही एक व्याख्या में मंटो कहते हैं- 'साहित्य और कल्चर में पोर्नोग्राफी तलाश करना है तो पहले उसकी मंशा तलाश करिए।'
लेकिन इस सारे कुछ के बावजूद प्रस्तुति कुछ ऐसी है कि उसमें एक गढ़ाव जैसा दिखाई देता है। मंटो के मुरीदों ने उनके किरदार की सुसंगतियां ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उनका एक नपा-तुला व्यक्तित्व निर्मित कर लिया है। यह मंटो अपने बारे में हर कुछ जानता है, वह बेलौस है, बुद्धिजीवी है, फक्कड़ है और जैसा कि इस प्रस्तुति का एक संवाद बताता है परेशान नहीं, उदास नहीं, बेजार है। मंटो हर नाट्य प्रस्तुति में अपने साहित्य की पूरी सैद्धांतिकी को निरूपित किया करते हैं। नाटक जो जाना-बूझा है उसी को दोहराता है। मंटो की भूमिका में तारिक हमीद कुछ स्मार्ट ड़ायलाग जरूर बोलते हैं, पर इसके अलावा किरदार में कोई रोचकता नहीं है। 
प्रस्तुति 'मंटो की कलम से' में हाल कुछ दूसरे ही हैं। यहां सीधे 'कहानी का रंगमंच' ही मंच पर मौजूद है। यह बोगस पद्धति कभी देवेंद्र राज अंकुर ने ईजाद की थी, जहां वाचिक देखते देखते एक बकबक में तब्दील हो जाता है। रामजी बाली न कहानी को संशोधित करते हैं न संपादित। न कोई दृश्य संरचना, न अभिनय जैसा अभिनय। न यथार्थ न माहौल। 'काली सलवार' का एक-एक विवरण बताया जा रहा है। चुनांचे सुल्ताना की आखिरी कंगनी भी घर से चली गई। चुनांचे खुदाबख्श के साथ उसे अंबाला से दिल्ली आना पड़ा। चुनांचे उसने बालकनी में जाना भी छोड़ दिया। हर दूसरे वाक्य में एक चुनांचे है, और कहानी बगैर कोई भावबोध बनाए इन्हीं वाक्यों में धीरे-धीरे और जल्दी-जल्दी निबट रही है। निबटते समय में एक्टिंग के नाम पर कुछ निबट रहा है। अब शंकर बालियां ले जाएगा, फिर सलवार लाएगा। दर्शक उड़ते चमगादड़ों के बीच ये कार्रवाइयां देख रहे हैं। चमगादड़ों का छोटा परिवार जो कभी श्रीराम सेंटर में रहता था, अब काफी बड़ा हो गया है। निर्द्वंद्व उड़ते चमगादड़ों की फड़फड़ाहटें दर्शक के लिए विघ्नकारी हो सकती थीं, पर इस विघ्न के लायक कुछ हो भी तो।  

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