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खो चुके रास्ते का एक सफर

टेनिसी विलियम्स ने नाटक 'कैमिनो रियल' 1953 में लिखा था. अमेरिका के जैफरी सीशेल के निर्देशन में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीसरे वर्ष के छात्रों ने इसकी एक प्रस्तुति तैयार की, जिसके प्रदर्शन अभिमंच प्रेक्षागृह में इसी सप्ताह किए गए। नाटक में घटनाओं का कोई सिलसिला नहीं है, यथार्थवाद का कोई ढांचा नहीं है, पात्रों से कोई निश्चित तादात्म्य भी नहीं बन पाता। फिर यह नाटक क्या है? सीशेल के मुताबिक 'यह नाटक किसी अनिश्चित समय में बहुत सी अवास्तविक घटनाओं की एक महाकाव्यात्मक यात्रा है.' खुद टेनिसी विलियम्स ने इसके बारे में लिखा कि 'यह नाटक मेरे लिए किसी अन्य दुनिया, किसी भिन्न अस्तित्व की रचना जैसा प्रतीत होता है'. कैसी दुनिया? इसके लिए उन्होंने महाकाव्य 'डिवाइन कॉमेडी' लिखने वाले चौदहवीं सदी के इतालवी कवि दांते को उद्धृत किया। दांते के मुताबिक 'हमारे जीवन की यात्रा के बीचोबीच मैंने खुद को एक अंधेरे जंगल में पाया जहां सीधा रास्ता खो गया था.' निर्देशक जैफरी सीशेल के अनुसार, यदि यह नाटक डिवाइन कॉमेडी के प्रथम भाग 'इनफर्नो' (नरक) का प्रतिरूप है, तो

मंटो- एक कोलाज

हिंदी थिएटर मंटो की प्रगतिशील बोहेमियन छवि से बार-बार विमोहित होता है। अपनी बौद्धिक सीमा में वह इस छवि के रूमान पर मुग्ध हुआ रहता है। मोहन राकेश ने मंटो की कहानियों में जिस जुमलेबाजी को एक खास कमजोरी के तौर पर लक्ष्य किया था, हिंदी थिएटर उसे एक नाटकीय तत्त्व के तौर पर गदगद होकर इस्तेमाल करता है। लेकिन बीते सप्ताह सम्मुख प्रेक्षागृह में हुई राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल की प्रस्तुति 'दफा- 292' की विशेषता यह है कि मंटो की एक परिहासपूर्ण कहानी के जरिए उसमें इस रूमान से परे सरकने की कोशिश की गई है। युवा रंगकर्मी अनूप त्रिवेदी निर्देशित इस प्रस्तुति में कथ्य के तीन चरण हैं। पहला, मंटो और उनकी बीवी का संवाद; दूसरा, कहानी 'तीन खामोश औरतें'; तीसरा, मंटो पर मुकदमा और उपसंहार। इस सारे सिलसिले में मंटो अपने खयालात और हालात को अक्सर एकालाप में भी बयान करते नजर आते हैं। वे बताते हैं कि 'कम्युनिस्ट मुझपर फाहशनिगारी का इल्जाम लगाते हैं', कि 'कोई तकियाई हुई रंडी मेरे अफसाने का मौजूं बन सकती है', कि 'जैसे में खाना खाता हूं, गुसल करता हूं, सिगरेट पीता हूं, वैसे

रोटी और पिज्जा

किसी नगर की किसी बस्ती की किसी इमारत की चौथी मंजिल के एक टू बेडरूम फ्लैट में एक परिवार अपनी धुंधली-सी हंसी-खुशी के साथ रहता था। सुबह होते ही घर के सदस्य इसे बनाए रखने की कोशिशों में जी-जान से जुट जाते। घर का पुरुष बच्चों को उनके ढीलेढालेपन और लापरवाही के लिए झिड़कियां देने लगता और मां रसोई का मोर्चा संभाल लेती। वो अपने सिद्धहस्त हाथों से जैम लगी ब्रेड या उबाली गई मैगी से बच्चों का टिफिन तैयार करती, और फिर दोपहर के खाने के लिए जल्दी-जल्दी रोटियां बेलने लगती। बच्चों के जाने के बाद पति-पत्नी स्वयं भी तैयार होकर अपने-अपने दफ्तरों के लिए कूच कर जाते। अरसे से यह सब कुछ इसी तरह चल रहा था। दफ्तर की ओर जाने वाली चार्टर्ड बस में पत्नी एक झपकी ले लेती और पति ट्रैफिक जाम में अपने दोपहिया पर फंसा कार लेने के बारे में सोचने लगता। बच्चों की खुशी पिज्जा में थी। दोपहर को जब दोनों भाई-बहन स्कूल से लौटते तो उनका मन पिज्जा खाने को होता, पर उन्हें भिंडी या गोभी की सब्जी के साथ रोटियां खाकर रह जाना पड़ता। लेकिन एक रोज ऐसा हुआ कि स्कूल से लौटते ही भाई ने कभी अखबार के साथ आया एक पर्चा अपनी आलमारी से ढूंढकर