पिपरी माता का ओल्ड टाउन

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एक पिछड़े देश की धनाढ्य संस्था है। इफरात
साधनों से वहां आए दिन तरह-तरह के प्रयोग हुआ करते हैं। रायस्टेन एबल
निर्देशित विद्यालय रंगमंडल की ताजा प्रस्तुति 'ओल्ड टाउन' में मंच के
आसपास मेले के जैसा मंजर तैयार किया गया है। इसमें सचमुच के मेलों जैसे
बड़े-बडे झूले हैं, एक चुस्कीवाला है, रोशनी से जगमगाता एक विशाल कथित
सुदर्शन चक्र है। चक्र के पास एक ऊंची बुर्जी बनाई गई है, जिसमें से
झांकते हुए कृष्ण भगवान दिखते हैं। यानी काफी एग्जॉटिक और भव्य नजारा है।
नाटक के लिए विद्यालय परिसर के एक लॉन को घेर लिया गया है। इतना सब है तो
एक कहानी की क्या मुश्किल है! दो हजार साल हुए कलाकारों का एक गांव था..
और सिर पर ताड़ के पत्ते जैसा बड़ा-सा मुकुट बांधे पिपरी माता वटवृक्ष के
नीचे खड़ी हैं। उनके दो बेटे लोलुप और गोलुप भीड़ की शक्ल में खड़े
दर्शकों से कथा बांच रहे हैं। यह पिपरी माता की तपस्या का फल है कि हम आज
जिंदा हैं। कथा चल रही है। दर्शक इस बीच चाहे तो झूले पर बैठें, चाहे तो
मजमे में खड़े होकर आगे पेश होने जा रही खेल का यह प्राककथन सुनें, या
चुस्की वाले से चुस्की खरीदें..। चुस्की वाले के करीब ही दो मंच बने हुए
हैं। एक पर कलाकार पुतुल-वेश में हैं। अमरसिंह राठौर की कहानी में उनकी
पुतुल-भंगिमाएं और गतिचालन काफी युक्तिसंगत है। खेल के निबटते ही नाटक के
सलावत खां, हाड़ी रानी और बाकी किरदार अपने-अपने मुखौटों के साथ फिर
स्थिर खड़े हो जाते हैं, और सटे हुए दूसरे मंच पर भक्त पूरनमल की कहानी
शुरू होती है। पूरनमल पर उसकी सौतेली मा का दिल आ गया है। रानी उसे लपकने
की कोशिश करती है, पर वह हाथ के नीचे से निकल जाता है। परंपरागत नौटंकी
का यह कुछ ज्यादा चटखारेदार संस्करण था। फिर भी करीब आधे घंटे तक यह
प्रसंग कलाकारों की पूरी एनर्जी के साथ मंच को जीवंत बनाए रखता है।
नौटंकी की बहरें, हाथ नचाने का अंदाज, अभिनय की अतिरंजना काफी चुस्ती के
साथ प्रस्तुति में शामिल है।... लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं है। रायस्टेन
एबेल ने अपने निर्देशकीय में लिखा है कि प्रस्तुति को लेकर उनकी कोई
अवधारणात्मक तैयारी नहीं थी। जब तैयारी न हो तो हमारी महान परंपरा का
रहस्यवाद एक उपयोगी चीज साबित होता है। लेकिन जाहिर है कि आज की नव
उच्च-भ्रू दृष्टि के लिए इस रहस्यवाद में तब तक कोई मजा नहीं है जब तक
उसका यथार्थ की नंगई से कंट्रास्ट न बैठे। लिहाजा पिपरी माता की कलाकार
संतानें 'नाटक के बाहर' आपस में वो भयानक गालियां बकना शुरू करती हैं कि
किसी संवेदनशील इंसान को रोना आ जाए। बुर्जी पर खडे भगवान कृष्ण, झूले को
घुमा रहा कलाकार, थोड़ी देर पहले भक्त पूरनमल बना अभिनेता सब गालियां
देने की इस होड़ में शामिल हैं।
कला में अतींद्रियता रूमानवाद के जैसी ही एक बीमारी है, जो व्यक्ति की
भावनात्मकता पर चोट करके उसे 'इम्यून' बनाने की ओर ले जा सकती है।
सामान्यतः वर्जित, गर्हित या अशालीन समझी जाने वाली स्थितियों से एक
स्फुलिंग पैदा करना अतींद्रिय कला का एक लक्षण है। गालियों का यह स्तर
किसी तनाव का विरेचन नहीं करता, बल्कि सामाजिकता के प्रति यह एक अतिचार
है। इसी तरह प्रस्तुति में एक स्थिति है जिसमें एक लड़की देर तक अपने
शरीर को झटक-झटक कर नाचती है। स्पष्ट दिख रहा है कि वह अपनी क्षमताओं का
एक अति के स्तर पर इस्तेमाल कर रही है। उसका नाच समयसीमा के सारे
अनुमानों को लांघ कर शरीर के साथ एक विशुद्ध ज्यादती है, और देखने वालों
को भी किंचित परेशान कर रहा है। लेकिन वह मानवीय क्षमता के सारे अनुमानों
को फेल कर देने पर दृढ़ है।
प्रस्तुति कुछ उस तरह की है जिसमें बहुत सी चीजें शामिल करने के बाद थीम
की एक लकीर खींचने की कोशिश की गई है। फुटकर रूप से प्रस्तुति में कुछ
प्रसंग स्वतंत्र प्रभाव जरूर बनाते हैं, लेकिन समग्रता में इसका कोई
निश्चित रूप नहीं बन पाता। और इसकी वजह है कि चीजों को लेकर कोई निश्चित
दृष्टि न होना और जबरन किसी दृष्टिनुमा विचार को ओढ़ने की कोशिश करना।
रानावि ने थिएटर का ऐसा विभागीकरण किया है कि प्रस्तुति में संगीत और
वस्त्र परिकल्पक ही नहीं दृश्य परिकल्पक और अभिनय प्रशिक्षक भी अलग से
मौजूद हैं। इतनी विशेषज्ञताओं से युक्त इस प्रस्तुति के प्रदर्शनों से विद्यालय के ग्रीष्म नाट्य़ोत्सव का उदघाटन किया गया।

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