उबाऊ अकादमिक


राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रस्तुतियां अब एक खास 'जानर' की शक्ल लेती जा रही हैं। उनके पीछे आइडिया तो बहुत ऊंचा होता है, पर अंततः वे एक 'कंस्ट्रक्ट' होकर रह जाती हैं। पिछले दिनों केएस राजेंद्रन निर्देशित विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'गर्भ नाटक' भी इसी तरह की थी। यह प्रस्तुति रंगकर्मी वी.के. द्वारा किए गए प्रसिद्ध जर्मन नाटक 'मरात/साद' के अनुवाद पर आधारित थी। सवा दो घंटे लंबी इस प्रस्तुति में होने को बहुत कुछ था, पर कुछ नहीं था तो परिप्रेक्ष्य और संप्रेषणीयता। यानी मंच पर बहुत कुछ होता हुआ तो दिख रहा है, पर न उसमें कोई स्पष्टता है, न रोचकता। एक बिल्कुल अनजाना संदर्भ दर्शकों के आगे अपनी स्फुट चमक के साथ आ गिरा है, और दर्शक किंकर्तव्यविमूढ़ सा उसमें कोई रस तलाशने की चेष्टा करता है।
'मरात/साद' 1963 में लिखे गए जर्मन नाटक का संक्षिप्त शीर्षक है। इसका पूरा अर्थ है: 'ज्यां पाल मरात का उत्पीड़न और हत्या, जिसे मार्क्वेज दे साद के निर्देशन में पेश किया चेरेंतन पागलखाने के मरीजों ने'। नाटक में अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में हुई फ्रांसीसी क्रांति की घटनाओं के प्रसंग से बहुत सी चर्चाएं की गई है। ये घटनाएं सन 1793 में घटी हैं, और उन्हें  सन 1808 में उक्त पागलखाने में खेला जा रहा है। नाटक के तीन प्रमुख पात्रों में से एक ज्यां पाल मरात फ्रेंच रिवोल्यूशन के दौरान का क्रांतिकारी पत्रकार है; दूसरा कूल्मियर, मनोरोग अस्पताल या पागलखाने का प्रमुख; और तीसरा यौन स्वच्छंदतावादी मार्क्वेज दे साद, जिसके नाम से 'सैडिज्म' (परपीड़न) शब्द ईजाद हुआ।
लेखक पीटर वेस ने इतिहास में वास्तव में हुई इस तरह की एक प्रस्तुति को आधार बनाकर यह नाटक लिखा था। यह एक सांगीतिक नाटक है जिसमें विचारों और स्थितियों का एक बौद्धिक द्वंद्व मंतव्यों की उलटबांसी में नाटकीय आकार लेता है। पागलखाने के इंचार्ज कूल्मियर के लिए यह प्रस्तुति देशभक्ति के मंतव्य से है, पर मरीजों को आदत पड़ी हुई है अपने संवाद दोहराते रहने की। वहीं मरात और साद के क्रांतिकारी और व्यक्तिवादी विचारों में भी एक बहस चल रही हुई है। मरात नाटक में मूलतः एक काल्पनिक पात्र है, क्योंकि नाटक खेले जाने के समय संदर्भ से 15 साल पहले ही उसकी मृत्यु हो चुकी थी। नाटक में बीच-बीच में ऐसे संवाद सुनाई देते हैं, जिनमें आम जनता के हित और सुचारू शासनतंत्र के समकालीन मुद्दों की चर्चा है।
लेकिन इस सारे विवरण से परे केएस राजेंद्रन की प्रस्तुति हर अर्थ में एक विशुद्ध अकादमिक अनुवाद की तरह पेश होती है। बगैर किसी भूमिका के एक दुनिया दर्शकों के आगे पटक दी जाती है। यह नाटक के भीतर नाटक ही नहीं प्रेक्षागृह के भीतर प्रेक्षागृह भी था। अभिमंच में दर्शकों के लिए बैठने का ऐसा इंतजाम किया गया है, कि सीटें स्टेज के बिल्कुल सिरे तक पहुंची हुई है। यहां सींखचे लगे हुए हैं, और उसके पीछे मंच की पूरी गहराई में एक विस्तारित दृश्य पसरा हुआ है। पात्रों ने पुराने यूरोपीय किस्म के कास्ट्यूम पहने हुए हैं। मंच पर लगातार एक भीड़भाड़ का दृश्य है। इस भीड़ में पात्रों को कोशिश करके पहचाना जा सकता है, पर कोई तादात्म्य उनसे नहीं बन पाता। प्रस्तुति का नायक मरात एक बाथटब में बैठा है, जहां उसपर छुरा घोंप दिया गया था। इसके अलावा एक ऊंचा मचाननुमा सिंहासन है। पागलों की एक भीड़ है। पीछे की ओर तीन हौज हैं जिनका ढक्कन उठाए जाने पर ही उनके होने का पता चलता है। फिर धुआं है, पियानो है, संगीत और कोरियग्राफी है, सूत्रधार है। लेकिन इतना सब कुछ समेटे हुए भी यह प्रस्तुति अंतत एक यांत्रिक उपक्रम ही है। मानो यह पूर्वपरिचित विषयवस्तु पर आधारित कोई छाया-रचना हो। विषयवस्तु को समझने के लिए यहां प्रस्तुति का ब्रोशर पढ़ना आवश्यक है, जिसमें अपने निर्देशकीय में केएस राजेंद्रन का कहना है कि 'यह एक असाधारण नाट्यालेख है। लगता है, जैसे इसमें न कहानी है, न कोई सुराग, न दिशा।' उन्होंने इसका नाम गर्भनाटक इसलिए दिया है, कि संस्कृत में नाटक के भीतर नाटक को यही विशेषण दिया गया है। मंच पर पीछे की दीवार पर बहुत से आकार उकेरे हुए हैं, जिनपर रोशनी पड़ने से एक विचित्र प्रभाव निर्मित होता है। पूरी प्रस्तुति इसी तरह अर्थ के बजाय मानो प्रभावों में खेलती है। मानो प्रस्तुति रचनात्मक काम न होकर एक कवायद हो। विद्यालय की प्रस्तुतियां इन दिनों थ्योरी के बोझ से दबी और अंततः डिजाइन में उलझी दिखाई देती हैं। यह डिजाइन विषयवस्तु के मकसद से न होकर अपने में एक स्वायत्त कसरत जैसा है। इसीलिए इस प्रस्तुति में सूत्रधार लड़की सरपट अंग्रेजी में बीच-बीच में बहुत से विवरण बताया करती है। भले ही दर्शकों के लिए इसका कोई अर्थ न बन पाए, पर कुल डिजाइन में तो यह खप ही जाता है।

टिप्पणियाँ

  1. पढ़ा..
    वैसे रानावि ही क्‍यों, हमारे यहां समूचे सांस्‍कृतिक उपक्रम की ही ये कथा नहीं. संप्रेषणीयता कभी बन जाती हो, कभी कुछ तादात्‍म्‍य भी हुआ जाता हो, मगर अंतत: किसी बड़े सामाजिक कनेक्‍ट का स्‍पेस कहां है, वह काम थोड़ा-बहुत जैसा भी है, सिनेमा ही तो कर रही है. और जो कर रही है सब देख ही रहे हैं.

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