टॉलस्टॉय के ईश्वर

ईश्वर की खोज में मनुष्य सदियों से लगा है। ऋग्वेद के जमाने से लेकर तरह तरह के सवाल उसे लेकर उठते रहे हैं। कि आखिर उसका स्वरूप कैसा है? अगर वो स्रष्टा और नियंता है तो इस समूची सृष्टि को लेकर उसका प्रयोजन क्या है? हमारे दैनंदिन जीवन में उस पर आस्था की भूमिका क्या है? क्या वो हमारी प्रोग्राम्ड जिंदगियों के सॉफ्टवेयर का एक ऑपरेटर है, जो अपने कंप्यूटर का एक बटन दबाता है और हमारे जीवन में भारी हलचल शुरू हो जाती है। वगैरह वगैरह। खास बात यह है कि सदियों की खोजबीन के बावजूद आज भी ईश्वर एक अस्पष्ट और अराजक अवधारणा है।
हमारे शुरुआती पूर्वजों ने ईश्वर के साकार या निराकार स्वरूप की एक कल्पना की। उनके बाद के पूर्वजों ने उस स्वरूप की आराधना की पाबंदियां निर्धारित कीं। ये पाबंदियां धीरे धीरे धर्म का रूप लेती गईं। आज की तारीख में दुनिया भर के आस्तिक अपने अपने धर्मों की रक्षा में जमीन आसमान एक किए हुए हैं। वे अपने ईश्वर को लेकर बेहद असुरक्षित दिखाई देते हैं। नासदीय सूक्त की 'स्वर्ग रचयिता सृष्टिकर्ता ईश्वर रक्षा कर' अब एक पुरानी प्रार्थना हो चुकी है, आज का आस्तिक तो खुद अपने ईश्वर की हिफाजत में जुटा हुआ है। इन तरह तरह के आस्तिकों ने संसार भर में कोलाहल मचा रखा है। एक आस्तिक वो है जो अपने ईश्वर के लिए बम धमाके करता है, दूसरों की जान ले लेता है, दूसरा वो है जो अपने धर्मस्थल में लाउड स्पीकर लगाकर अपनी ईश्वर स्तुति से दूसरों की नींद हराम करता है, तीसरा वो है जो अपनी धार्मिक छवि का लाभ उठाकर दुराचार में संलिप्त पाया जाता है। ऐसे में जब सीधे साधे दुनियादार लोग धार्मिकों का ये सारा प्रपंच देखते हैं तो उनके मन में स्वाभाविक ही यह भाव उठता है- ऐसे आस्तिकों से भगवान बचाए, इनसे तो नास्तिक ही भले।
ठीक ऐसे मौके पर हमें टॉलस्टॉय के ईश्वर की याद आती है।
काउंट लियो निकोलेयेविच टॉलस्टॉय की मृत्यु को इस 24 नवंबर को पूरे सौ साल हो जाएंगे। युद्ध और शांति, आन्ना कारेनिना जैसे उपन्यासों के लेखक टॉलस्टॉय के ईश्वर की विशेषता है कि वो मनुष्य की रैशनलिटी (तर्कप्रवणता) को बाधित नहीं करता। प्रकटतः वो एक रहस्यमय उपस्थिति है, लेकिन सच्चाई यह है कि टॉलस्टॉय के साहित्य में ईश्वर वैसा ही है जैसा उसे होना चाहिए। उनकी किताबें पढ़ते हुए प्रारंभिक पाठक को किंचित यह आश्चर्य हो सकता है कि वहां ईश्वर का बार बार जिक्र आता है। लेकिन न तो इस ईश्वर से कुछ मांगा जाता है, न उनके पात्र उसकी पूजा पाठ करते दिखाई देते हैं, न ही उनके यहां उसके वजूद की कोई खास चर्चा दिखाई देती है। फिर यह 'निष्क्रिय' ईश्वर वहां क्यों है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें उनके साहित्य में बहुधा प्रयुक्त होने वाले एक और शब्द पर गौर करना होगा। यह शब्द है- आत्मा। वे कहते हैं- 'मैं जानता हूं कि मैं टॉलस्टॉय हूं, मेरी पत्नी है, बच्चे हैं, सफेद बाल हैं, असुंदर चेहरा है, दाढ़ी है- यह सब तो पासपोर्टों में लिखा रहता है। लेकिन आत्मा के बारे में पासपोर्टों में कुछ नहीं लिखा जाता और आत्मा के बारे में मैं केवल इतना ही जानता हूं कि वो भगवान के निकट होना चाहती है। और भगवान क्या है? भगवान वो है जिसका मेरी आत्मा एक अंश है।'
ये है टॉलस्टॉय के ईश्वर की परिभाषा। वे कहते हैं- 'भगवान तो केवल आस्था की ही बात है।' उनका कहना था- 'जब तक मनुष्य के अंदर ईश्वर की ज्योति प्रकाशित नहीं होती तब तक वह केवल एक दुर्बल और दयनीय प्राणी होता है। और जब यह ज्योति जगमगाने लगती है, तब मनुष्य संसार में सबसे शक्तिशाली प्राणी बन जाता है।'
कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े रहे प्रसिद्ध लेखक मक्सिम गोर्की से एक बार टॉल्सटॉय ने पूछा- 'आप भगवान को क्यों नहीं मानते?'
'क्योंकि उसमें मेरी आस्था नहीं है।' गोर्की ने जवाब दिया।
'यह झूठ है'- टॉलस्टॉय बोले- 'आप स्वभाव से आस्थावान हैं और भगवान के बिना आपका काम नहीं चलेगा। बहुत जल्द ही आप यह अनुभव कर लेंगे। ...आप बहुत सी चीजों को प्यार करते हैं और प्यार का ही उग्र रूप है विश्वास। और अधिक प्यार करना चाहिए, तब प्यार विश्वास में बदल जाएगा। अविश्वासी प्यार नहीं कर सकता। ऐसे लोगों की आत्मा आवारा होती है, फलहीन होती है। आप जन्म से आस्थावान हैं और अपने स्वभाव के विरुद्ध जाने में कोई तुक नहीं। आप सुंदरता की रट लगाए रहते हैं न? सुंदरता क्या है? भगवान ही उच्चतम और पूर्णतम सुंदरता है।'
टॉलस्टॉय के मुताबिक 'धर्म मनुष्य और ईश्वर के बीच के पारस्परिक संबंध की व्याख्या करता है अर्थात यह बतलाता है कि मनुष्य संपूर्ण तत्त्व का एक अंश है। इस विधि से वह मनुष्य-जीवन का उद्देश्य निश्चित करता है और यह उद्देश्य सिवाय इसके और कुछ नहीं होता कि मनुष्य अपने अंदर के ईश्वरीय अंश की वृद्धि करे।'
टॉलस्टॉय का ईश्वर आस्था का विषय है, इसलिए उन्हें धर्म का बाहरी वितंडा एक पाखंड लगता था। अपने उपन्यास पुनरुत्थान में उन्होंने एक चर्च के दृश्य के प्रसंग से कर्मकांड और पाखंड का मखौल उड़ाया था, जिसके लिए उन्हें तत्कालीन रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च की नाराजगी का सामना भी करना पड़ा। उन्हें चर्च की सदस्यता से बेदखल कर दिया गया। लेकिन इससे उनके विचारों और लेखन की गति पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
अगर हम टॉलस्टॉय की रचनाओं और जीवन को देखें तो वहां सर्वत्र एक बेचैनी दिखाई देती है। वे जीवन की सादगी, उसकी सहजता और कर्मठता, उसके भोलेपन, उसके प्राकृतिक सौंदर्य के बरक्स चारों ओर फैले झूठ और नकलीपन को लेकर बेचैन दिखाई देते हैं। वे इसका समाधान खोजते हैं और युद्ध और हिंसा के विरोध में आवाज उठाते हैं। वे किसानों के शोषण को समाप्त करने के रास्तों की तलाश करते हैं। और उनकी यह तलाश कभी खत्म नहीं होती, जैसे उनकी बेचैनी। देश, दुनिया, जीवन के प्रश्नों से जुड़ी उनकी अनंत बेचैनी किसी ईश्वरीय अध्यात्म में जाकर शांति का रास्ता नहीं चुन पाती। उनकी ईश्वरीय आस्था उन्हें कोई शॉर्टकट मुहैया नहीं करा पाती, क्योंकि उनके प्रश्नों के लिए वैसा शॉर्टकट कभी था ही नहीं, क्योंकि टॉलस्टॉय निजी शांति नहीं संसार की शांति के प्रश्न से जूझ रहे थे, क्योंकि इस ऊबड़खाबड़ संसार की गुत्थी को सुलझाने में ईश्वर उनका आलंब जरूर था, लेकिन वह उनके जैसे रैशनलिस्ट की कोई प्रत्यक्ष मदद नहीं कर सकता था। माना जाता है कि टॉलस्टॉय अपनी तर्कप्रवणता में जीवन भर जीवन की अंतर्भूत तर्कहीनता से ही जूझते रहे। वह अंतर्भूत तर्कहीनता जो इस संसार की संरचना का अपरिहार्य नियम और अवयव है और उनकी मृत्यु के बाद के दशकों में कम्युनिस्टों ने भी जिससे अपनी तरह से जूझने की एक कोशिश की। इस जद्दोजहद ने टॉलस्टॉय को तो निरंतर बेचैन रखा, लेकिन संसार को उनके विचारों और साहित्य के रूप में बहुत कुछ दिया।

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