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बचा रहने वाला काम

जीवन में कई तरह के लोग मिलते हैं. ज्यादातर अपनी निजी जरूरतों-हसरतों के प्रश्न से जूझते. लेकिन कुछ दिन पहले  दफ्तर में मिले सुमित की समस्या यह थी कि आज के इतने पतित हो गए सामाजिक हालात में जीवन कैसे जिया जाए. कि सारा माहौल इतना संवेदनहीन और विवेकशून्यता से भरा मालूम देता है कि आपका सारा जानना-समझना-पढ़ना-सोचना आपको कुंठा के अलावा कुछ और नहीं देता. मैंने ठीक-ठीक सुमित का दृष्टिकोण जानना चाहा तो उसने मुझे एक घटना सुनाई. एक दलित लड़की के साथ एक दबंग जाति के आठ लड़कों ने बलात्कार किया. मामला थाने पहुंचा, तो पुलिस ने लड़की की मेडिकल जांच कराई. जांच रिपोर्ट में कहा गया कि लड़की के साथ कोई बलात्कार नहीं हुआ है, लिहाजा एफआईआर दर्ज नहीं की गई. लेकिन इसके कुछ ही रोज में ऐसा हुआ कि लड़की से हुए कुकर्म की खुद बलात्कारियों द्वारा बनाई गई विडियो क्लिप सार्वजनिक हो गई. उसकी सीडी और एमएमएस जब बहुतों के पास पहुंच गए तो इस प्रत्यक्ष सबूत के दबाव में पुलिस को मामला दर्ज करने के लिए बाध्य होना पड़ा. पर न्याय की गुहार के इस प्राथमिक चरण तक पहुंचने तक लड़की इतना कुछ झेल चुकी थी कि उसने आत्महत्या कर ली. सु

सरोकार का रंगकर्म

बापी बोस निर्देशित प्रस्तुति  ‘ सैवंटीथ जुलाई ’   का प्रदर्शन पिछले दिनों श्रीराम सेंटर में किया गया। बापी बोस दिल्ली के उन गिने-चने रंगकर्मियों में हैं ,   जिनके काम में सामाजिक सरोकार , विचार और प्रतिबद्धता को बिल्कुल प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। पिछली प्रस्तुति में उन्होंने सुकरात की मार्फत सत्ता की निरंकुशता का एक रूपक पेश किया था। इस बार उन्होंने गुजरात के उत्तर-गोधरा परिदृश्य को पेश किया है। प्रस्तुति के शुरू में ही मंच पर सांप्रदायिक घृणा का अजगर लहराता हुआ दिखता है। प्रेक्षागृह के अंधेरे में चमकते हरे रंग के इस अजगर की डरावनी आकृति दर्शकों के बीच से गुजर रही है। फिर रोशनी होते ही मंच पर थाने का दृश्य दिखाई देता है ,   जहां कुछ पुलिसवाले बातचीत में मशगूल हैं। एक पुलिसवाले की सेकुलर राय उसके दो साथियों को पसंद नहीं आ रही। उनमें से एक की बीवी मुस्लिम दंगाइयों के हाथों मार डाली गई थी। इसी बीच कुछ लोगों की आवाजें सुनाई देती हैं। यह एक भीड़ है ,   जो कुछ मुस्लिम लड़कों की पिटाई पर उतारू है ,   कि उन्होंने एक हिंदू लड़की से दुष्कर्म किया है। पुलिसवाले भीड़ में से  लड़कों को छुड़ा लाए

परिसर में बिखरी रंगभाषा

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के चोंचलों का अंत नहीं। थिएटर के नाम पर वहां ऐसे-ऐसे प्रयोग हुआ करते हैं कि पश्चिम में आजमाए जाने वाले सर्रियल या प्रभाववादी मुहावरे भी पानी भरते नजर आएं। निदेशिका अनुराधा कपूर की हमेशा ही ‘ कुछ नया करने ’ और ‘ एक नई रंगभाषा तलाश करने ’ की कोशिशों ने इधर के अरसे में विद्यालय की प्रस्तुतियों को एक अजूबा बना डाला है। उनकी अपनी रंगभाषा का सिलसिला भी कुछ इस किस्म का है जो थिएटर की ‘ हैपनिंग ’ को ‘ इंस्टालेशन ’ ( संस्थापन) में तब्दील करता है। हालांकि कोई गहरा मनोयोग उनकी प्रस्तुतियों में कम ही दिखाई देता है। उसके बजाय ‘ अलग दिखने ’ का एक सायास उपक्रम नजर आता है। पिछले सप्ताह संपन्न हुई विद्यालय के अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए निर्देशित उनकी नई प्रस्तुति ‘ डॉक्टर जैकिल एंड हाइड ’ भी इसी क्रम में देखी जा सकती है। आरएल स्टीवेंसन के सवा सौ साल पहले लिखे गए उपन्यास पर उनकी इस प्रस्तुति में दर्शकों के बैठने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके बजाय वे विद्यालय परिसर के अलग-अलग ठियों पर फैले प्रस्तुति के टुकड़ों को घूम-घूमकर देखा करते हैं। शुरू में बीच के लॉन में जमा हुए

पाकिस्तान की प्रस्तुति गुड़िया घर

दिल्ली इब्सन फेस्टिवल में पिछले सप्ताह  पाकिस्तान के थिएटर ग्रुप तहरीक-ए-निसवां ने  नाटक  ‘ गुड़िया घर ’  का मंचन किया। हेनरिक इब्सन के 1979 में लिखे प्रसिद्ध नाटक  ‘ ए डॉल्स हाउस ’  का यह एक रूपांतरित संस्करण थी। रूपांतरण में नाटक के सात पात्रों के बजाय कुल चार ही  मंच पर  दिखाई देते हैं। पत्नी का नाम यहां तहमीना है और पति का मुराद। मूल नाटक की कथावस्तु पूरे फैलाव में न दिखकर सरसरी तौर पर ही दिखाई देती है  :  पति की खुशी के लिए जी-जान से जुटी तहमीना, घर में किसी नारी निकेतन जैसी जगह से कुछ दिनों के लिए आई सकीना से उसकी बातचीत, इस बातचीत के जरिए स्पष्ट होता यथार्थ, जिसमें तहमीना की हर गतिविधि पति द्वारा नियंत्रित है, मानो वह एक गुड़िया हो जिससे वह जब चाहे जैसे चाहे, खेलता है। और अंत में तहमीना का घर छोड़कर जाने का निर्णय। नाटक के निर्देशक अनवर जाफरी के अनुसार पाकिस्तान के परिवेश में, जहां शादी को एक पवित्र और अटूट किस्म का संबंध माना जाता हो, नोरा या तहमीना के निर्णय की संगति ठहराना थोड़ा मुश्किल काम था, फिर भी उन्होंने इसे खेलने का निर्णय लिया। प्रस्तुति में एक प्रयोग यह किया गया ह

थोड़ा कथ्य ज्यादा शिल्प

निसार अल्लाना की ड्रामेटिक आर्ट एंड डिजाइन एकेडमी के दिल्ली में हुए इब्सन फेस्टिवल में पिछले रविवार को केरल के ग्रुप ‘ थिएटर रूट्स एंड विंग्स ’ ने नाटक ' व्हेन वी डेड अवेकन ' का मंचन किया। इब्सन ने यह नाटक 1899 में लिखा था। एक प्राकृतिक स्वास्थ्य केंद्र में छुट्टियां बिता रहे मूर्तिकार आर्नल्ड रूबेक और उसकी पत्नी माइया अपनी जिंदगियों में खिन्न हैं। आर्नल्ड ने कभी माइया से वादा किया था कि वह उसे पहाड़ की चोटी पर ले जाएगा , जहां से वह दुनिया को देख सकेगी , पर उसने यह कभी नहीं किया। ऐसे में उन्हें वहां दो लोग मिलते हैं। एक शख्स जो पहाड़ पर भालुओं के शिकार के लिए जा रहा है , और सफेद कपड़ों में एक रहस्यमय स्त्री। रूबेक पहचान जाता है कि यह स्त्री कभी उसकी मॉडल रही इरेना है। इरेना खुद को मरा हुआ बताती है। इसकी वजह है कि रूबेक ने उसकी आत्मा पर कब्जा करके उसे अपनी ' पुनरुत्थान ' शीर्षक मास्टरपीस मूर्ति में डाल दिया। रूबेक उसे बताता है कि उस मूर्ति के बाद से मृत होने की यह मनःस्थिति खुद उसकी भी है। इरेना के पास एक चाकू है। उसके अनुसार आत्माहीन होने के बाद से उसने इसी चाकू से अप

पूंछ हिलाने के पहलुओं पर नाटक

हनु यादव दिल्ली के पुराने रंगकर्मी हैं। वे बीच-बीच में दिखते हैं , फिर गायब हो जाते हैं। करीब दो-ढाई दशक पहले उन्होंने गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कहानी ' विपात्र ' का श्रीराम सेंटर बेसमेंट में मंचन किया था। हिंदी अकादमी के सौजन्य से पिछले दिनों श्रीराम सेंटर में उनके निर्देशन में उनके पंचम ग्रुप की यह प्रस्तुति अरसे बाद फिर देखने को मिली। कहानीपन के निबाह के लिहाज से विपात्र एक गरिष्ठ किस्म का कथ्य है। इसके एक दफ्तर में काम करने वाले पात्र रोजमर्रा के वास्तविक सवालों पर बौद्धिक किस्म की चर्चा करते रहते हैं। इस चर्चा का सबसे बड़ा मुद्दा है कि ' हमने अपने स्वार्थों के लिए अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता बेच दी है ' । इसी बात को कहानी में कई तरह से कहा गया है। जितने भी पहलू इस विषय के हो सकते हैं उन्हें खंगाला गया है। उसका एक पात्र कहता है कि हर आदमी के पूंछ हिलाने के अलग-अलग तरीके होते हैं। फर्क इतना ही होता है कि कुछ लोग अपने आत्मसम्मान के प्रदर्शन के लिए अलग तरह से पूंछ हिलाते हैं। प्रस्तुति के संवाद कुछ इस तरह के हैं- ' कोई व्यक्तिबद्ध वेदना का उदात्तीकरण भले ही कर

भगवदज्जुकम

सातवीं शताब्दी के संस्कृत हास्य नाटक भगवद्ज्जुकम का प्रदर्शन पिछले दिनों मुक्तधारा प्रेक्षागृह में किया गया। वरिष्ठ रंगकर्मी हेमंत मिश्र निर्देशित इस प्रस्तुति में गणिका गोगल्स लगाए हुए दिखाई देती है। इस तरह प्राचीन परिवेश के हास्य को विशुद्ध प्रहसन में तब्दील किया गया है। शुरुआती दृश्य में परिव्राजक योगीराज और उनके शिष्य शांडिल्य में काफी देर तक आत्मा और शरीर को लेकर चर्चा चल रही है। योगीराज तो संसार से निस्संग हैं, पर शांडिल्य गुरुदेव के उपदेशों से आजिज आया हुआ एक दुखी चेला है। उसकी रुआंसी मुद्राओं और लोलुप मनोवृत्ति की अतिरंजना देखने लायक है। गुरु-चेला लताओं और तरह-तरह के रंग-बिरंगे पुष्पों से बनाए गए वन प्रांतर के दृश्य में उपदेश सुनते-सुनाते विचर रहे हैं। फिर एक जगह गुरुदेव ध्यानस्थ हो जाते हैं और शांडिल्य को इस रमणीक वन में एक रमणी अपनी सखियों सहित प्रवेश करती दिखाई देती है। गोगल्स लगाए रमणी को देखता लालसा-दग्ध चेला-- इस दृश्य योजना में गौण पात्रों के विवरण भी अच्छे मनोरंजक हैं। रमणी वसंतसेना की सखी और मां काफी प्रत्यक्ष किस्म का अभिनय कर रही हैं। उनके चौंकने, मनुहार करने, खीझन

लड़की जो वायलिन हो गई

इंद्रियों से संचालित होने वाले शरीर को एक वस्तु की तरह बरतो तो वह एक दिलचस्प शै बन जाता है। आप खड़े-खड़े धड़ाम से गिर रहे हैं, पर चोट लगने का कोई भय नहीं। कोई कहीं भी छू रहा है कोई मायने नहीं। गुदगुदी होती है तो एक जैविक खिलखिलाहट निकलती है। अचानक एक शख्स बेतरतीब ढंग से कांपने लगता है। यानी शरीर अपनी फितरत में कुछ क्रियाएं करता है, पर वह इंद्रियबोझिल शख्सियत से बरी होकर एक स्वयंसक्षम इकाई बन चुका है। आध्यात्म की विदेह-अवस्था के जैसी ही मानो यह व्यक्तित्व-मुक्ति की कोई दशा है, जो एशियाइयों के वश की चीज नहीं। सामाजिक वर्जनाओं का बंधापन खुद को खुद से परे रखकर बरतने की मुक्ति तक जाने नहीं देता। यह तो पश्चिमी मानस है जो जान गया है कि शरीर को इतना तूल मत दो कि इस शरीर के भीतर रहने वाला मनुष्य उसका बंधक बन जाए।     कुछ रोज पहले दिल्ली आर्ट फेस्टिवल के तहत श्रीराम सेंटर में हुई हंगारियन प्रस्तुति 'एग शैल' शरीर की उन्मुक्त क्षमताओं का एक नायाब कोलाज थी, जिसके बारे में बताया गया कि वह 'वह हमारी दैनिक चर्याओं की प्राकृतिक भाषा में संबंध को बगैर शब्दों के परिभाषित करती है.' 

बेगानी गलियों में दौड़ते शहर का गीत

युवा रंगकर्मी लोकेश जैन ने रंगकर्म का एक अलग ही मुहावरा विकसित किया है। इस मुहावरे में कोई कहानी नहीं होती, पर बहुत से चरित्रों के माध्यम से एक परिस्थिति को दिखाया जाता है। लोकेश धीरे-धीरे इस परिस्थिति की एक लय बनाते हैं, जो कथाहीनता के बावजूद दर्शकों को बांधे रखती है। यह लय कुछ इस किस्म की है कि इसमें यथार्थ और रूमानियत एक साथ शरीक दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए मंच पर जीवन के तलछट का कोई दृश्य चल रहा है कि पीछे से किसी पुरानी फिल्मी मेलोडी के स्वर सुनाई देते हैं। अपनी नई प्रस्तुति 'हमें नाज है' में लोकेश ने इसी शैली में पुरानी दिल्ली के गरीब-गुरबा के जीवन को विषय बनाया है।  मंच पर बिल्कुल पीछे स्ट्रीट लाइट का एक खंबा खड़ा है, जिसपर एक गमला लटका है। वहीं नीचे प्रोपराइटर जमालू भाई का कंगला टी स्टाल है। टोपी लगाए व्यस्त जमालू के पास पड़ी बेंच पर छोटा जमालू भी बैठा रहता है। थोड़ी देर बाद केले वाली आती है, फिर गुदड़ी खाला, सुघड़ी आपा। किनारे पर दीन-हीन दशा में एक भिखारी भी बैठा है। उधार की चाय पीने वाला, झगड़ते हुए बच्चे, बोझा उठाने वाला आदि किरदार और मुनिया-पतरू की इश्किया लबझब

असभ्यता की सड़क पर

दिल्ली में एक सड़क, जिसे बीआरटी कॉरिडोर कहा जाता है, पिछले सालों में लगातार चर्चा और विवादों में रही है. कई साल पहले जब इसपर काम शुरू हुआ था तब मेरे जैसे बहुत से लोग उधर से गुजरते हुए देखते थे कि आखिर यह हो क्या रहा है. बीच की आधी सड़क को ट्रैफिक से खाली करवा कर उसे सीमेंटेड किया जा रहा था, उसपर छोटे-छोटे फुटपाथ और पटरियां वगैरह बनाए जा रहे थे. और इधर पूरी सड़क का ट्रैफिक आधी सड़क में इन कारगुजारियों को निहारता हुआ फंसा रहता. फिर पता चला कि सड़क को सीमेंटेड करने और फुटपाथ बनाने में करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं, और इस तरह सरकार ने सार्वजनिक यातायात को व्यवस्थित करने की दिशा में एक नया झंडा गाड़ दिया है. उधर लगभग नियमित रूप से अखबारों और चैनलों में बीआरटी कॉरिडोर पर ट्रैफिक जाम की खबरें भी दिखाई देने लगीं. सरकार की उपलब्धि जनता को बेहाल किए हुए थी और लोग समझने लगे कि बीआरटी खुद में ही कोई राक्षसी नीति है. उसी दौरान एक स्वैच्छिक संस्था इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड सस्टेनिबिलिटी के सौजन्य से हुए एक स्लाइड शो में  इसकी अवधारणा के तमाम पहलू जानने को मिले. उस शो में ऑस्ट्रिया से आए एक प

दूर से तुगलक पास से तुगलक

फिरोजशाह कोटला में नाटक के मंच के कई खंड हैं। बाएं छोर पर आम जनता से जुड़ी स्थितियों के लिए छोटे-छोटे जीनों में बना प्लेटफॉर्म, फिर बादशाह का दरबार और कक्ष, फिर एक बस्ती, एक किला और उसकी बुर्जी; उसी से सटी एक ऊबड़खाबड़ जगह। यह इतना विस्तृत मंजर है कि किसी एक दृश्य के लिए दर्शक को बहुत ज्यादा गर्दन घुमानी पड़ती है, या बुर्जी पर एक वास्तविक पेड़ के करीब अपने सिपहसालार से बात कर रहा बादशाह किसी सुदूर छवि की तरह दिखाई देता है। यह प्रोसीनियम से एक अलग तरह का अनुभव है। यहां कोई छत नहीं है जहां से पात्र को फोकस में लेने वाला रोशनी का कोई स्पष्ट वृत्त बन सके। यहां रोशनियां थोड़ी दूर से आती हैं। दृश्य दर दृश्य किसी एक मंच को उजागर करतीं। आरके धींगरा ने कई मौकों पर अपनी प्रकाश योजना से अच्छे चाक्षुष असर पैदा किए हैं।  इब्राहीम अलकाजी के शब्दों में तुगलक एक ऐसा नाटक है जो 'विशद निरूपण' की मांग करता है, जिसमें उदाहरण के लिए उन्होंने बादशाह के अध्ययन कक्ष की किताबों से ठसाठस भरी ताख का भी जिक्र किया है। पर निर्देशक भानु भारती की प्रस्तुति के इस विस्तृत मंच पर विशद निरूपण का अर्थ बदल गया है

इतिहास के खंडहर में तुगलक

फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में पिछले साल किए 'अंधा युग' के मंचन के बाद निर्देशक भानु भारती एक बार फिर वहीं एक बड़ी प्रस्तुति 'तुगलक' लेकर आ रहे हैं। गिरीश कारनाड का यह नाटक सत्तर के दशक में इब्राहीम अलकाजी ने पुराना किला में खेला था। लेकिन फिरोजशाह कोटला का इतिहास तो खुद तुगलक वंश से जुड़ा है। इसे नाटक के नायक मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई और उत्तराधिकारी बने फिरोजशाह तुगलक ने चौदहवीं शताब्दी के मध्य में बनवाया था। लेकिन इस ऐतिहासिक संयोग याकि संगति के अलावा निर्देशक भानु भारती के मुताबिक 'यह नाटक आधुनिक युग के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। सत्तासीन लोगों के इर्द-गिर्द रहने वाले विवेकशून्य लोग शासकों को भी आम जनता के कल्याणकारी काम करने से रोकते हैं। वे दूरदृष्टि वाले शासक के नेक विचारों को भी अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं।'  गिरीश कारनाड ने अपने नाटक में भारतीय इतिहास के सबसे विवादास्पद चरित्रों में से एक रहे तुगलक को एक नए तरह से देखा था। एक स्वप्नदर्शी शासक, जिसमें बड़े फैसले लेने का साहस था। लेकिन जो अपनी सुगठित राज्य की आकांक्षाओं का वस्

फिर फिर मंटो

दिल्ली की उर्दू अकादमी ने सआदत हसन मंटो की जन्म शताब्दी के मौके पर अपना इस साल का नाट्य समारोह उन्हीं को समर्पित किया। पिछले साल अकादमी ने यह फेस्टिवल  फैज अहमद फैज की जन्म शताब्दी के मौके पर इसी तरह फैज को समर्पित किया था। नाटककार न फैज थे, न मंटो। हिंदी-उर्दू के रंगकर्मी ऐसी सूरत में कोलाजनुमा एक फार्मूले का इस्तेमाल करते हैं। थोड़ी-बहुत लेखक की जिंदगी और थोड़ा-बहुत उसका साहित्य लेकर प्रस्तुति तैयार की जाती हैं। हिंदी-उर्दू की बौद्धिकता की इस इतिवृत्तात्मकता से आगे कोई गति नहीं है। उसपर उर्दू वालों की विशेषता यह है कि वे अपने लेखकों पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही मुग्ध रहते हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में मंटो को लेकर बनी इस तरह की  इतनी प्रस्तुतियां देख ली हैं कि सारे दोहराव की तस्वीर पहले से ही आंखों के आगे खिंची रहती है। संयोग ऐसा रहा कि इस फेस्टिवल में देखी दो प्रस्तुतियों में यह दोहराव डबल होकर सामने आया। सलीमा रजा निर्देशित 'एक कुत्ते की कहानी' और रामजी बाली निर्देशित 'मंटो की कलम से' की मार्फत मंटो की कहानियां 'टिटवाल का कुत्ता' और 'काली सलवार' दो-दो

असली लड़ाई अतर्कवाद से है

किसी भी विषय को लेकर सही तरह से सोच पाना हिंदुस्तानियों को कभी नहीं आया. विचार के किसी एक सिरे को पकड़ कर खींचते चले जाना हमने खूब सीखा. इस तरह हमारी सभ्यता में तरह-तरह के शास्त्र तैयार हुए- तर्कशास्त्र, वैशेषिक, सांख्य, न्यायसूत्र...और जाने क्या-क्या. लेकिन इन शास्त्रों से समाज सुखी क्यों नहीं हो रहा, इसके समेकित नतीजे तक पहुंचने की चेष्टा कभी नहीं की गई. इसकी वजह है कि समाज कभी फिक्र में रहा ही नहीं. यह हमारी  व्यक्तिकेंद्रित सभ्यता में ही संभव था कि कई करोड़ व्यक्तियों की एक जैसी समस्याओं को वह व्यक्ति दर व्यक्ति के शुद्धतावादी अनुरोध में उलझा देती. गांधी ने यह काम सबसे बड़े पैमाने पर किया. उन्होंने एक व्यापक जनांदोलन में निहित सामाजिक आकांक्षाओं को आत्मशुद्धि के अहिंसावाद में नष्ट कर दिया. करोड़ों लोगों की ख्वाहिशों से जुड़े ऐसे सवाल जिनके जवाब हमेशा कठिन और अक्सर कटु होते हैं, का उन्होंने एक कृत्रिम समाधान पेश किया- भावुक आत्मोत्सर्ग का. ठोस ढंग के स्वार्थों पर टिकी व्यवस्था को उन्होंने अनशन कर-कर के पिघलाने की बचकानी चेष्टा की. हकीकत में उनकी यह चेष्टा सैकड़ों साल की व्यक्तिनि

गफलत के माहौल में

सोहैला कपूर हाल तक अंग्रेजी थिएटर करती रही हैं। इधर कुछ अरसे से वे हिंदी में दाखिल हुई हैं। कॉमेडी उनका प्रिय क्षेत्र है। बीते सप्ताहांत रमेश मेहता की स्मृति में श्रीराम सेंटर में हुए समारोह में उन्होंने उनका नाटक 'उलझन' पेश किया। ड्राइंगरूम की सेंटिंग में एक युवा नायक और उसका दोस्तनुमा नौकर। कई तरह की उधारियों के जरिए सुख से जीने वाले नायक से उगाही के लिए दर्जी और दुकानदार आते हैं। दक्षिण भारतीय मकान मालकिन, जिसका किराया कई महीने से नहीं चुकाया गया है, भी रह-रह कर कुछ खरीखोटी सुनाकर जाती है। यानी कई तरह के किरदार रह-रह कर दृश्य में दिखाई देते रहते हैं। नायक को शाम तक घर खाली न करने पर सामान फेंक देने की धमकी मिल चुकी है। लेकिन इन तमाम परेशानियों से जूझ रहा वह सहसा गदगद हो उठता है जब एक खूबसूरत लड़की दृश्य में नमूदार होती है। प्रस्तुति  सार्वकालिक सिटकॉम का एक अच्छा उदाहरण है। ऐसी प्रस्तुतियों में टाइमिंग की चुस्ती काफी महत्त्वपूर्ण होती है, जो कि इस प्रस्तुति में ठीक से है। सोहैला कपूर अपने पात्रों को एक अच्छी कॉमिक रंगत देती हैं। कभी यह चीज किरदार की बदहवासी से बनती है, कभ

थ्री आर्ट्स क्लब के वो दिन

लेखक, निर्देशक और अभिनेता रमेश मेहता 1950 और साठ के दशक में दिल्ली में रंगमंच की दुनिया का एक बड़ा नाम थे। वे 1948 में शिमला से दिल्ली स्थानांतरित हुए थिएटर ग्रुप थ्री आर्ट्स क्लब से जुड़े थे। थ्री आर्ट्स क्लब को तीन लोगों- ओम शर्मा, देवीचंद कायस्थ और आरएम कौल- ने 1943 में बनाया था, लेकिन दिल्ली आने के बाद आरएम कौल, रमेश मेहता और तीन दशक तक बाराखंबा रोड स्थित मॉडर्न स्कूल के प्रिंसिपल रहे एमएन कपूर इसके स्तंभ बने। तब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना नहीं हुई थी और 'थ्री आर्ट्स क्लब' रमेश मेहता के निर्देशन में सप्रू हाउस में निरंतर नए-नए नाटकों का प्रदर्शन करता था। उनके नाटक एक शहरी व्याकरण में सामाजिक प्रवृत्तियों पर व्यंग्य करने वाले और लोकरुचि के अनुरूप होते थे। इस तरह उन्होंने दिल्ली में थिएटर को एक चेहरा दिया, लेकिन बाद के अरसे में उन्हें भुला दिया गया। सन 2008 में, अपने पिता आरएम कौल की मृत्यु के 25 वर्षों बाद, उनकी पुत्री अनुराधा दर ने थ्री आर्ट्स क्लब को पुनर्जीवित करते हुए दिल्ली में एक समारोह का आयोजन किया, जिसमें रमेश मेहता भी शामिल थे (उसी साल उन्हें संगीत नाटक

खो चुके रास्ते का एक सफर

टेनिसी विलियम्स ने नाटक 'कैमिनो रियल' 1953 में लिखा था. अमेरिका के जैफरी सीशेल के निर्देशन में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीसरे वर्ष के छात्रों ने इसकी एक प्रस्तुति तैयार की, जिसके प्रदर्शन अभिमंच प्रेक्षागृह में इसी सप्ताह किए गए। नाटक में घटनाओं का कोई सिलसिला नहीं है, यथार्थवाद का कोई ढांचा नहीं है, पात्रों से कोई निश्चित तादात्म्य भी नहीं बन पाता। फिर यह नाटक क्या है? सीशेल के मुताबिक 'यह नाटक किसी अनिश्चित समय में बहुत सी अवास्तविक घटनाओं की एक महाकाव्यात्मक यात्रा है.' खुद टेनिसी विलियम्स ने इसके बारे में लिखा कि 'यह नाटक मेरे लिए किसी अन्य दुनिया, किसी भिन्न अस्तित्व की रचना जैसा प्रतीत होता है'. कैसी दुनिया? इसके लिए उन्होंने महाकाव्य 'डिवाइन कॉमेडी' लिखने वाले चौदहवीं सदी के इतालवी कवि दांते को उद्धृत किया। दांते के मुताबिक 'हमारे जीवन की यात्रा के बीचोबीच मैंने खुद को एक अंधेरे जंगल में पाया जहां सीधा रास्ता खो गया था.' निर्देशक जैफरी सीशेल के अनुसार, यदि यह नाटक डिवाइन कॉमेडी के प्रथम भाग 'इनफर्नो' (नरक) का प्रतिरूप है, तो

मंटो- एक कोलाज

हिंदी थिएटर मंटो की प्रगतिशील बोहेमियन छवि से बार-बार विमोहित होता है। अपनी बौद्धिक सीमा में वह इस छवि के रूमान पर मुग्ध हुआ रहता है। मोहन राकेश ने मंटो की कहानियों में जिस जुमलेबाजी को एक खास कमजोरी के तौर पर लक्ष्य किया था, हिंदी थिएटर उसे एक नाटकीय तत्त्व के तौर पर गदगद होकर इस्तेमाल करता है। लेकिन बीते सप्ताह सम्मुख प्रेक्षागृह में हुई राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल की प्रस्तुति 'दफा- 292' की विशेषता यह है कि मंटो की एक परिहासपूर्ण कहानी के जरिए उसमें इस रूमान से परे सरकने की कोशिश की गई है। युवा रंगकर्मी अनूप त्रिवेदी निर्देशित इस प्रस्तुति में कथ्य के तीन चरण हैं। पहला, मंटो और उनकी बीवी का संवाद; दूसरा, कहानी 'तीन खामोश औरतें'; तीसरा, मंटो पर मुकदमा और उपसंहार। इस सारे सिलसिले में मंटो अपने खयालात और हालात को अक्सर एकालाप में भी बयान करते नजर आते हैं। वे बताते हैं कि 'कम्युनिस्ट मुझपर फाहशनिगारी का इल्जाम लगाते हैं', कि 'कोई तकियाई हुई रंडी मेरे अफसाने का मौजूं बन सकती है', कि 'जैसे में खाना खाता हूं, गुसल करता हूं, सिगरेट पीता हूं, वैसे