कोर्ट मार्शल और सबसे बड़ा सवाल

कोर्ट मार्शल पिछले दो दशकों में हिंदी थिएटर में सबसे ज्यादा खेला गया नाटक है। वह यों तो स्वदेश दीपक की रचना है, पर उसका रंगमंचीय संस्कार रंजीत कपूर ने किया था। उनके निर्देशन में पीयूष मिश्रा और गजराज राव जैसे अभिनेताओं के साथ वह पहली बार 1991 में खेला गया था। तब से विभिन्न थिएटर ग्रुप लगातार उसे खेल रहे हैं। इधर रंजीत कपूर ने इसकी एक नई प्रस्तुति तैयार की है। लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादेमी के छात्रों के लिए निर्देशित इस प्रस्तुति का श्रीराम सेंटर में मंचन किया गया। 'कोर्ट मार्शल' की विशेषता है कि वह दर्शक को मोहलत नहीं देता। वह हमारी दलिद्दर सामाजिकता का एक युक्तिपूर्ण और डि-रोमांटिसाइज्ड पाठ है। उसकी यह विशेषता है कि दलित विमर्श की अत्युक्तियों के बगैर वह ऐसी सही जगह चोट करता है कि बिलबिलाते वर्णवाद को खुद ही अपना चोगा फेंककर नंगा हो जाना पड़ता है। यह नाटक कला में विचार की तार्किक एप्रोच का भी एक अच्छा उदाहरण है। सच को छुपाना एक बात है, उसके प्रति उदासीन रहना दूसरी। रामचंदर का वकील विकाश राय जब पर्त दर पर्त इस उदासीनता को उघाड़ता है, तो वहां एक बड़ा भारी अन्याय छिपा नजर आता है। पूरा नाटक एक ही दृश्य संरचना में संपन्न होता है। अपनी नाटकीय गति, विषय की सामयिकता, न्यूनतम मंचीय तामझाम और अभिनय की प्रचुर संभावनाओं की वजह से किसी भी रंगकर्मी के लिए यह एक आदर्श नाटक कहा जाएगा।
रामचंदर ने अपने अफसर की हत्या की- यह एक साबित तथ्य है। लेकिन विकाश राय के लिए महत्त्वपूर्ण है कि हत्या क्यों की गई। इस 'क्यों' को सुलझाने में खुद रामचंदर तक की कोई दिलचस्पी नहीं। लेकिन विकाश राय की है, क्योंकि उसके पिता जज हैं और एक भाई नक्सलवादी था। नाटक में सच के उदघाटन के ढांचे की प्रामाणिकता उसकी एक बड़ी सफलता है। अतीत में विजय तेंदुलकर ने 'खामोश अदालत जारी है' में सच के क्रमिक उदघाटन के एक ऐसे ही कथानक के लिए एक बनावटी स्थिति का उपयोग किया गया था, जबकि जे बी प्रीस्ले के 'एन इंस्पेक्टर काल्स' का सच अपनी सायास नैतिकता की वजह से प्रामाणिक मालूम नहीं देता। लेकिन यहां सच तक पहुंचने के इच्छुक विकाश राय के बरक्स सुनवाई का मुखिया कर्नल सूरत सिंह एक अनुशासन प्रिय अफसर है। अपने अनुशासन में वह चीजों को सुसंगत तरह से बरतने का आदी है। सुनवाई के सही दिशा में जाने का यह एक तार्किक आधार है। इसके अलावा रंजीत कपूर का मंच कौशल इस प्रस्तुति में एक बार फिर अपनी सटीक चुस्ती के साथ दिखता है। उनके गठन में कुछ ऐसा है कि दर्शक के पास दृश्य से परे जाने की कोई मोहलत नहीं होती। शायद यह पाठ के तनाव में है, या पात्रों के अभिनय में, या दृश्यों की गति में, संगीत में या इन सबके समुच्चय में। मेकअप की कमी अलबत्ता जरूर दिखाई देती है। जैसे कि कर्नल सूरत सिंह बने प्रदीप भारती अपनी शक्लो सूरत में किरदार से कहीं ज्यादा युवा लगते हैं। कई जगह अंडरप्ले आदि चूकें भी दिखती हैं, पर पूरी प्रस्तुति के स्तर पर वे खुद ब खुद नजरअंदाज होकर रह जाती हैं। विकाश राय की भूमिका में आलोक पांडे में अच्छी एनर्जी थी, जबकि बीडी कपूर बने मनोज शर्मा अपनी देहभाषा में प्रभावित करते हैं।
इससे पहले रंजीत कपूर के ही निर्देशन में एक लघु प्रस्तुति 'सबसे बड़ा सवाल' का भी मंचन किया गया। मोहन राकेश लिखित यह एक हास्य नाटक था। लो ग्रेड वर्कर्स सोसाइटी की मीटिंग हो रही है। लेकिन समूची मीटिंग कई विषयांतरित नुक्तों और आपत्तियों में ही अटक कर रह जाती है। जैसे कि 'भाइयो और बहनो' नहीं 'बहनो और भाइयो' होना चाहिए, कि संस्था का नाम विदेशी भाषा अंग्रेजी में न होकर हिंदी में होना चाहिए, कि असल में संस्था का नाम निम्न स्तर कर्मचारी समाज निम्न शब्द की वजह से मंजूर नहीं किया जा सकता, वगैरह। कर्मचारियों के हितों की मांग अचानक निम्न शब्द की व्याख्या में आकर अटक जाती है। एक सदस्य बताती है कि निम्न शब्द के दो अर्थ हैं- हीन और न्यून। इनमें से कौन सा मंजूर किया जाए। कई लाउड किरदार प्रस्तुति में लगातार एक चुहुल की वजह बने रहते हैं। मीटिंगों का समाजशास्त्र प्रस्तुति में बहुत अच्छी तरह व्यक्त हुआ है। सफाई करने वाले रामभरोसे और श्यामभरोसे राजेश और अभिषेक का अभिनय चरित्रों की दिलचस्प रंगत लिए था। कोर

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